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Tuesday 27 July 2021

उद्विग्नता

 


जीवन की उष्णता 
अभी ठहरी है ,
उद्विग्न है मन 
लेकिन आशा भी 
नहीं कर पा रही 
इस मौन के 
वृत्त  में प्रवेश 
बस एक उच्छवास ले 
ताकते हैं बीता कल ,
निर्निमेष नज़रों से 
लगता है कि 
अब पाना कुछ नहीं 
बस खोते ही 
जा रहे हर पल।

59 comments:

  1. गहन चिंतन लिए सुन्दर सृजन ।

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  2. मन चाहे मन को बाँधना क्यूँ ?
    कठपुतली नहीं फिर साधना क्यूँ?
    जी की असीमित इच्छाओं से
    चित्त उद्विग्न, विरक्त हो जाता है
    रिश्तों को सामने पाता जब भी
    मन उलझन में पड़ जाता है
    -----
    कम शब्दों में बेहतरीन अभिव्यक्ति दी।

    प्रणाम
    सादर।

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    1. कठपुतली होता
      गर मन
      साध लिया
      होता अब तक
      इच्छाएँ गर
      हावी हों तो
      विरक्त नहीं
      होता तब तक
      रिश्तों की जो
      बात करो तो
      सारी उलझन
      उनमें हैं ,
      बिना नेह के
      ये जीवन
      उद्विग्न हुआ फिर
      ये मन है ।

      भाव पूर्ण प्रतिक्रिया के लिए बहुत सा स्नेह ।

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  3. बहुत ही भावनात्मक और हृदयस्पर्शी रचना आदरणीय मैम

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  4. मन के भावों को सटीक शब्द देती पंक्तियाँ

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  5. जब स्वयं का वर्तमान स्वरूप अपने ही सत्य को स्वीकार करने लगता है तो संभवतः ऐसे ही शब्दों में ढ़ल जाता है । समस्पर्शी ....

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    1. अमृता जी ,
      कितने सरल शब्दों में कर दिया विश्लेषण ।
      आभार

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  6. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार(२८-०७-२०२१) को
    'उद्विग्नता'(चर्चा अंक- ४१३९)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  7. आशा का मौन के वृत में प्रवेश न कर पाना .. सहज ही स्वीकारता मन .. भावमय अभिव्यक्ति
    सादर

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  8. बीत जाती है ज़िन्दगी ये ढूंढने में
    कि ढूंढना क्या है
    जबकि मालूम नहीं ये भी कि
    जो मिला है,
    उसका करना क्या है..
    बस खोते ही
    जा रहे हर पल।
    सादर नमन

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  9. बहुत गहन चिंतन होता है आपकी कविताओं में

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  10. बहुत ही गहन चिंतनपरक रचना प्रिय दीदी। जब आशा ही मौन के वृत में प्रवेश ना कर सके तो स्थिति साधारण नहीं असाधारण होती है। इसी विचलन का नाम उद्विग्नता है। भावपूर्ण अभिव्यक्ति तो विशेष है ही प्रिय श्वेता के काव्यात्मक प्रतिउत्तर सोने पे सुहागा है। काव्य में ये संवाद सृजन और पठन के आनंद को दुगना कर देता है। हार्दिक शुभकामनाएं इस नवसृजन के लिए।🙏🙏

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    1. प्रिय रेणु
      कितनी गहनता से विचार करती हो कि मैं अचंभित हो जाती हूँ ।
      श्वेता की काव्यात्मक टिप्पणी ने मुझे उत्तर देने के लिए एक तरह से बाध्य ही कर दिया । तुमको वो भी पसंद आया इसके लिए आभार ।

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  11. बीते हुए पलों में दिव्यदृष्टि से झांकती और अपने कल को अंकित सुंदर गूढ़ रचना के लिए अप्रतिम बधाई आदरणीय दीदी,बहुत शुभकामनाएं आपको 🙏💐

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    1. शुक्रिया जिज्ञासा ,
      छोटी सी रचना की गूढ़ता समझने के लिए ।

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  12. मोतियों की तरह मुग्धता बिखेरता सृजन।

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  13. उदास हृदय की अप्रतिम रचना। बहुत सुन्दर!!

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    1. प्रिय अनुपमा ,
      जब कहीं उदासी का आलम हो तो मन यूँ ही रचा करता है । शुक्रिया ।

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  14. ओहह!
    उम्र बीतते यही लगता है...
    उम्र की थी सीढ़ियाँ
    चढ़ते रहे
    जीवन भर!

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    1. प्रिय वाणी ,
      उम्र का क्या है
      बस सीढियाँ चढ़ना
      पर जब देखो
      पलट कर
      चढ़ आये हम कितना ?
      बीते समय के
      अनुभव ही
      सिखाते नित नई बात
      खामोशी भी
      करती है
      खामोशी से बात ।

      आभार।

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  15. न होने दो हावी मन पर यूँ निराशा,
    प्रभा किरण सी अवतरित होगी आशा।
    उद्विग्नता ठेस लगे क्षणों की प्रतिछाया,
    जगत के कलाप ऐसे ही हैं महा माया।

    मन पर लगी ठेस को प्रति बिंब करते उद्गार हृदय तक उतरता सृजन।

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  16. प्रभा किरण जब
    आ जाती है
    उद्विग्नता कहीं फिर
    छिप जाती है ,
    महा माया से
    भला कौन बचा
    जीवन का मेला
    बस यूँ ही सजा ।

    भाव पूर्ण अभिव्यक्ति के लिए आभार ।

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  17. गोपेश मोहन जैसवालWed Jul 28, 04:49:00 pm

    बहुत सुन्दर लेकिन बहुत उदास बिखरे मोती !
    इन्हें आशा के धागे में फिर से पिरोना होगा.

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    1. आशा आती है हर निराशा के बाद
      मोती हैं तो माला भी बनेगी साथ ।

      गोपेश मोहन जी स्वागत और आभार

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  18. साम्य आने तक तो मन उद्विग्न ही रहता है। आवश्यक है कि हम या तो बाहर या अन्दर कोई साम्य ढूढ़ लें। गूढ़ रचना।

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    1. प्रवीण जी ,
      बस साम्य ढूँढ़ ही रही
      मिलते ही खिलखिलाट
      उभर आएगी
      उद्विग्नता छिपेगी
      फिर कहीं , और
      खुशी वाचाल हो जाएगी ।
      आभार आपकी सुंदर प्रतिक्रिया के लिए ।

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  19. निर्निमेष नज़रों से
    लगता है कि
    अब पाना कुछ नहीं
    बस खोते ही
    जा रहे हर पल।

    मर्मस्पर्शी कविता...
    बहुत सुंदर...

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  20. बहुत सुन्दर

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  21. बस एक उच्छवास ले
    ताकते हैं बीता कल ,
    निर्निमेष नज़रों से
    लगता है कि
    अब पाना कुछ नहीं
    बस खोते ही
    जा रहे हर पल।
    सही कहा बीते कल में हर निराशा में मन आशावान हो ही जाता था इस विश्वास के साथ कि कभी अपना भी वक्त आयेगा...पर अब वक्त जैसे मुट्ठी भर रेत सा फिसल रहा है वहीं आने वाले वक्त से उम्मीदें भी...।
    बहुत ही चिन्तनपरक भावपूर्ण सृजन।

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    1. सुधा जी ,
      हमेशा की तरह सटीक विश्लेषण कर दिया । अब वक्त कितना है ये नहीं पता तो ऐसा ही लगता है कि बस अब सब कुछ खोते जा रहे हैं।
      आभार

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  22. उद्विग्नता आशा और निराशा के बीच सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश में उम्मीद को तलाशते
    रहता है, बहुत सुंदर रचना

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    1. भारती जी ,
      जब तक ज़िन्दगी तब तक उम्मीद रहती है और सही कहा कि लगता तो है कि हर पल खो रहे हैं लेकिन आशा , निराशा के बीच सामंजस्य बैठाने में ही ये उद्विग्नता हावी है ।

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  23. इन सब अवस्थाओं के बीच भी जीवन अपनी गति चलता ही रहता है ।भावपूर्ण रचना

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    1. सुनीता जी ,
      आप शायद पहली बार मेरे ब्लॉग पर आई हैं ।स्वागत है । सच है इन सभी अवस्थाओं के बावजूद जीवन तो चलता ही रहता है ।
      शुक्रिया

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  24. खोते हुए भी बहुत कुछ पाया जाता है ... कई बार ये अनुभव समझ नहीं आता और लगता है जीवन प्रतिपल छूट रहा है ... पर अनन्तः गहरे सागर में उतर कर पता चलता है एक अनुभव जीवन का मिल ही जाता है ... बहुत भावपूर्ण गहरी रचना ...

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  25. नासवा जी ,
    आपके सकारात्मक विचार इस उद्विग्नता को शायद कम करने में सक्षम हों ।
    आभार

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  26. सार्थक दर्शन लिए बहुत सुंदर नज्म। पोस्ट पर मिली प्रतिक्रयाएं भी दिल छूने वाली हैं। आपको बहुत-बहुत शुभकामनाएँ। सादर।

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  27. सिर्फ एक शब्द गजब

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    1. अंकित जी ,
      ये एक शब्द ही काफी है ।
      शुक्रिया

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  28. "लगता है कि
    अब पाना कुछ नहीं
    बस खोते ही
    जा रहे हर पल।" .. कटु सत्य वाली शाश्वत बातों को शिल्पपूर्ण शब्दों से संजोया है आपने .. अपने तन्हा पलों में .. शायद ...
    (गुस्ताख़ी माफ़ .. चंद अपनी पंक्तियाँ यहाँ चिपकाने के लिए 😀😀😀)
    बस यूँ ही ...
    किसी रेत-घड़ी सी ही है शायद ..
    हम सब की ज़िन्दगी,
    जुड़ी एक संकीर्ण गर्दन से,
    दो काँच के कक्षों में से
    अगर जो टिकी हो नज़रें हमारी
    ऊपरी कक्ष पर तो ..
    हर पल कुछ खोती-सी है ज़िन्दगी
    और जो ...
    निचली कक्ष पर हो निगाहें तो
    हर क्षण कुछ पाती-सी है ये ज़िन्दगी।
    नज़र, निग़ाहों, नज़रियों, नीयतों के
    कणों से ही हर पल
    तय हो रही है ये ज़िन्दगी .. शायद ...

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    1. सुबोध जी ,
      गहन प्रतिक्रिया के लिए आभार । और ये गुस्ताखी नहीं बल्कि रचना से उपजे विचार हैं जो नई दिशा दे रहे हैं ।

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  29. बेहद खूबसूरत सृजन

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  30. सुंदर, सार्थक रचना !........
    ब्लॉग पर आपका स्वागत है।

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  31. दिल को छूती रचना।

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  32. बीते कल में झांकती भावपूर्ण रचना।

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  33. हृदयस्पर्शी सृजन

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