किरचें मन की
अचानक से छन्न से गिरा था
ग्लास काँच का ,
दूर दूर तक
फैल गयीं थीं
किरचें फर्श पर
बड़े बड़े टुकड़े
सहेज लिए थे
जल्दी से मैंने ,
कोशिश तो थी
कि समेट लूँ
सारी किरचें
एक बार में ही ,
लेकिन जब तब
दिख ही जाती हैं
फर्श पर पड़ी हुई ,
बिल्कुल मेरी तरह ,
मैं भी तो यूँ ही
बिखरी थी टूट कर ।
टूटे हुए को कितना भी समेटूँ
ReplyDeleteकुछ किर्चियों की चुभन ताउम्र रूलाती है।
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मर्मस्पर्शी भाव गढ़े हैं दी।
कम शब्दों में सबकुछ कह देना हुनर है।
सादर।
श्वेता ,
Deleteमन के भाव में तक पहुँचे । बहुत बहुत शुक्रिया ।
किरचें फिर भी कहीं न कहीं रह जाती है
ReplyDeleteजिंदगी में सबको समेटे रखना आसान नहीं रहता
बहुत सुन्दर
कविता जी ,
Deleteकहाँ आसान होता है ज़िन्दगी को समेटना । आभार ।
बहुत मर्मस्पर्शी सृजन । टूटा काँच और मन कहाँ जुड़ पाते हैं ...गहन भावाभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteमीना जी ,
Deleteकम शब्दों से भी आप जुड़ गयीं
आभार
मनग्राही बेहतरीन कविता...
ReplyDeleteशुक्रिया वर्षा जी ।
Deleteमन को छूती बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteसादर
अनिता ,
Deleteपसंद करने के लिए आभार ।
किरचें तो रह ही जातीं हैं कितना भी समेट लो। हृदयस्पर्शी पंक्तियां।
ReplyDeleteशास्त्री जी ,
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार
यशोदा ,
ReplyDeleteहृदय से आभार ।
शिखा ,
ReplyDeleteकिरचें हैं तो चुभेगी ही न । बात दिल तक पहुँची । शुक्रिया
इतने कच्चे काँच सा
ReplyDeleteक्यूँ होता है ये मन
कि-
हाथ से छूटा और
छन्न से बिखर गया
🌹 बहुत सुन्दर रचना संगीती जी👌👌
बस मन तो कच्चे काँच से होता है। क्या करें अब ऐसा ही है मेरा मन 😄😄😄😄
ReplyDeleteमन के क्या कहने ..
ReplyDeleteकब कांच सा टूटकर बिखर जाए..
कब शिलाओं जैसा पत्थर दिल हो जाए..
किसके बस में रहा है ये..टूटने में सबसे आगे रहा है ये..
मन के भावों के आगे भी भाब बढ़ाये तुमने ।सच है पत्थर भी हो जाता है कभी कभी । शुक्रिया जिज्ञासा ।
Deleteअद्भुत लेखन
ReplyDeleteगहन भाव
अनिता , आभार
Deleteहा ! महीन कांच की किरचें जिस तरह कई दिनों तक मिलती रहती हैं,उसी तरह मन को समेटने के बाद भी चोटें रह-रह कर दुखती हैं । आपने सरल और सहज शब्दों में यह बात बखूबी कह दी है ।
ReplyDeleteनुपुरं ,
Deleteमन के भाव कितनी खूबसूरती से तुमने समझ कर लिख दिए । बहुत सा शुक्रिया
आदरणीया संगीता दी, आपकी पाँच लिंकों की विशेष प्रस्तुति भी देखी थी, किंतु मैं उस पर नहीं लिख पाई क्योंकि मेरे चाचाजी के देहावसान की खबर मिलने से मन व्यथित हो गया था। बहुत अच्छा लगता है जब हमारे पुराने और अनुभवी ब्लॉगर्स का लिखा हुआ कुछ पढ़ने को मिलता है और वे अपने हमसे अपने अनुभव बाँटते हैं। ब्लॉग जगत भी एक परिवार सा ही लगता है अब। ज्यादा दिन तक इससे दूर नहीं रह पाते हैं। आपके समय के ब्लॉगर्स पुनः सक्रिय होंगे तो हम सभी को बहुत अच्छा लगेगा। सादर।
ReplyDeleteओह, दुखद समाचार दिया ईश्वय इस घड़ी आपको दुख सहने की क्षमता दे ।
Deleteसक्रिय होने का प्रयास कर रही हूँ बाकी तो सबको स्वयं ही सक्रिय होने होगा । आभार
सारी किरचें
ReplyDeleteएक बार में ही ,
लेकिन जब तब
दिख ही जाती हैं ...
सच में, सारी किरचें एक बार में समेटी नहीं जाती हैं दी, एकाध टुकड़ा घर के/मन के कोने में पड़ा मिल ही जाता है देर सबेर....
रचना को सराहने के लिए दिल से आभार
Deleteगहन भाव, मन को छूती सच्ची बात बताती सुंदर बहुत ही सुंदर रचना, महिला दिवस की बधाई हो, नमन
ReplyDeleteज्योति ,
Deleteआपको भी महिला दिवस की शुभकामनाएँ ।
रचना को सराहने के लिए शुक्रिया।
एक बार में सभी कुछ समेटना कहाँ सम्भव हो पाता है... सुन्दर कविता....
ReplyDeleteशुक्रिया विकास जी
Deleteसुंदर और हृदयस्पर्शी सृजन। इंसान और काँच में ये समानता है। दोनो जब टूटते हैं तो समेटना मुश्किल होता है। सादर।
ReplyDeleteवीरेंद्र जी ,
Deleteसही कहा आपने इंसान भी कहाँ सिमट पाता है ।
मर्मस्पर्शी भाव
ReplyDeleteकुमार गौरव ,शुक्रिया
Deleteकिरचों की चुभन , छलनी हुआ मन ।
ReplyDeleteअमृता ,
ReplyDeleteआप ब्लॉग पर सक्रीय रहीं यह देख कर बहुत अच्छा लग रहा है . शुक्रिया
ReplyDeleteख्वाहिश थी मिरि ,
कभी मेरे लिए
तेरी आँख से
एक कतरा क़तरा निकले
भीग जाऊँ मैं
इस क़दर उसमें
कि समंदर भी
उथला निकले ।
छोटी नज़्म कहें या क्षणिका बेहद खूबसूरत ख्याल है।
क्षेपक :
ख्वाइश थी मिरि ,
मौत बन तू आये ,
बादे मर्ग ,
तेरे साथ रहूं।
विशेष :बादे मर्ग= मौत के बाद।
छोटी बहर की अतिथि नज़्म :संगीता स्वरूप गीत
सहभावी -सहभागी :वीरुभाई (वीरेंद्र शर्मा )
"मैं भी तो यूँ ही
ReplyDeleteबिखरी थी टूट कर।" ... बहुत ही मार्मिक बिम्ब .. काँच के गिलासों की हर छोटी-बड़ी किरचों को, भले ही अपनी हथेली घायल करके, तो फिर भी हम समेट कर कर्कट को सौंप देते हैं पर .. स्वयं के बिखरने पर, स्वयं ही बिखरना होता है, स्वयं ही समेटना होता है, स्वयं ही लड़खड़ाना होता है, स्वयं ही सम्भालना होता है .. कोई दूसरा कहाँ आ पाता है भला .. शायद ...