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किरचें मन की

>> Saturday, 6 March 2021

 


अचानक से 
छन्न से गिरा था
ग्लास काँच का ,
दूर दूर तक 
फैल गयीं थीं 
किरचें फर्श पर 
बड़े बड़े टुकड़े 
सहेज लिए थे
जल्दी से मैंने ,
कोशिश तो थी 
कि समेट लूँ  
सारी किरचें 
एक बार में ही ,
लेकिन जब तब 
दिख ही जाती हैं 
फर्श पर पड़ी हुई ,
बिल्कुल मेरी तरह ,
मैं भी तो यूँ ही 
बिखरी थी टूट कर ।





38 comments:

Sweta sinha Sat Mar 06, 08:39:00 am  

टूटे हुए को कितना भी समेटूँ
कुछ किर्चियों की चुभन ताउम्र रूलाती है।
------
मर्मस्पर्शी भाव गढ़े हैं दी।
कम शब्दों में सबकुछ कह देना हुनर है।
सादर।



कविता रावत Sat Mar 06, 12:02:00 pm  

किरचें फिर भी कहीं न कहीं रह जाती है
जिंदगी में सबको समेटे रखना आसान नहीं रहता

बहुत सुन्दर

Meena Bhardwaj Sat Mar 06, 02:05:00 pm  

बहुत मर्मस्पर्शी सृजन । टूटा काँच और मन कहाँ जुड़ पाते हैं ...गहन भावाभिव्यक्ति ।

Dr Varsha Singh Sat Mar 06, 02:45:00 pm  

मनग्राही बेहतरीन कविता...

अनीता सैनी Sat Mar 06, 05:17:00 pm  

मन को छूती बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
सादर

shikha varshney Sat Mar 06, 07:46:00 pm  

किरचें तो रह ही जातीं हैं कितना भी समेट लो। हृदयस्पर्शी पंक्तियां।

संगीता स्वरुप ( गीत ) Sat Mar 06, 07:59:00 pm  

श्वेता ,
मन के भाव में तक पहुँचे । बहुत बहुत शुक्रिया ।

संगीता स्वरुप ( गीत ) Sat Mar 06, 08:00:00 pm  

शास्त्री जी ,
बहुत बहुत आभार

संगीता स्वरुप ( गीत ) Sat Mar 06, 08:01:00 pm  

कविता जी ,
कहाँ आसान होता है ज़िन्दगी को समेटना । आभार ।

संगीता स्वरुप ( गीत ) Sat Mar 06, 08:01:00 pm  

यशोदा ,
हृदय से आभार ।

संगीता स्वरुप ( गीत ) Sat Mar 06, 08:02:00 pm  

मीना जी ,
कम शब्दों से भी आप जुड़ गयीं
आभार

संगीता स्वरुप ( गीत ) Sat Mar 06, 08:03:00 pm  

अनिता ,
पसंद करने के लिए आभार ।

संगीता स्वरुप ( गीत ) Sat Mar 06, 08:05:00 pm  

शिखा ,
किरचें हैं तो चुभेगी ही न । बात दिल तक पहुँची । शुक्रिया

उषा किरण Sat Mar 06, 08:17:00 pm  

इतने कच्चे काँच सा
क्यूँ होता है ये मन
कि-
हाथ से छूटा और
छन्न से बिखर गया
🌹 बहुत सुन्दर रचना संगीती जी👌👌

संगीता स्वरुप ( गीत ) Sat Mar 06, 08:30:00 pm  

बस मन तो कच्चे काँच से होता है। क्या करें अब ऐसा ही है मेरा मन 😄😄😄😄

जिज्ञासा सिंह Sat Mar 06, 11:54:00 pm  

मन के क्या कहने ..
कब कांच सा टूटकर बिखर जाए..
कब शिलाओं जैसा पत्थर दिल हो जाए..
किसके बस में रहा है ये..टूटने में सबसे आगे रहा है ये..

anita _sudhir Sun Mar 07, 06:38:00 am  

अद्भुत लेखन
गहन भाव

संगीता स्वरुप ( गीत ) Sun Mar 07, 07:42:00 am  

मन के भावों के आगे भी भाब बढ़ाये तुमने ।सच है पत्थर भी हो जाता है कभी कभी । शुक्रिया जिज्ञासा ।

नूपुरं noopuram Sun Mar 07, 10:29:00 am  

हा ! महीन कांच की किरचें जिस तरह कई दिनों तक मिलती रहती हैं,उसी तरह मन को समेटने के बाद भी चोटें रह-रह कर दुखती हैं । आपने सरल और सहज शब्दों में यह बात बखूबी कह दी है ।

Meena sharma Sun Mar 07, 05:21:00 pm  

आदरणीया संगीता दी, आपकी पाँच लिंकों की विशेष प्रस्तुति भी देखी थी, किंतु मैं उस पर नहीं लिख पाई क्योंकि मेरे चाचाजी के देहावसान की खबर मिलने से मन व्यथित हो गया था। बहुत अच्छा लगता है जब हमारे पुराने और अनुभवी ब्लॉगर्स का लिखा हुआ कुछ पढ़ने को मिलता है और वे अपने हमसे अपने अनुभव बाँटते हैं। ब्लॉग जगत भी एक परिवार सा ही लगता है अब। ज्यादा दिन तक इससे दूर नहीं रह पाते हैं। आपके समय के ब्लॉगर्स पुनः सक्रिय होंगे तो हम सभी को बहुत अच्छा लगेगा। सादर।

Meena sharma Sun Mar 07, 05:23:00 pm  

सारी किरचें
एक बार में ही ,
लेकिन जब तब
दिख ही जाती हैं ...
सच में, सारी किरचें एक बार में समेटी नहीं जाती हैं दी, एकाध टुकड़ा घर के/मन के कोने में पड़ा मिल ही जाता है देर सबेर....

ज्योति सिंह Mon Mar 08, 08:00:00 am  

गहन भाव, मन को छूती सच्ची बात बताती सुंदर बहुत ही सुंदर रचना, महिला दिवस की बधाई हो, नमन

संगीता स्वरुप ( गीत ) Mon Mar 08, 08:09:00 pm  

नुपुरं ,
मन के भाव कितनी खूबसूरती से तुमने समझ कर लिख दिए । बहुत सा शुक्रिया

संगीता स्वरुप ( गीत ) Mon Mar 08, 08:11:00 pm  

ओह, दुखद समाचार दिया ईश्वय इस घड़ी आपको दुख सहने की क्षमता दे ।

सक्रिय होने का प्रयास कर रही हूँ बाकी तो सबको स्वयं ही सक्रिय होने होगा । आभार

संगीता स्वरुप ( गीत ) Mon Mar 08, 08:11:00 pm  

रचना को सराहने के लिए दिल से आभार

संगीता स्वरुप ( गीत ) Mon Mar 08, 08:12:00 pm  

ज्योति ,
आपको भी महिला दिवस की शुभकामनाएँ ।
रचना को सराहने के लिए शुक्रिया।

विकास नैनवाल 'अंजान' Wed Mar 10, 09:42:00 pm  

एक बार में सभी कुछ समेटना कहाँ सम्भव हो पाता है... सुन्दर कविता....

Vocal Baba Wed Mar 10, 11:03:00 pm  

सुंदर और हृदयस्पर्शी सृजन। इंसान और काँच में ये समानता है। दोनो जब टूटते हैं तो समेटना मुश्किल होता है। सादर।

KUMMAR GAURAV AJIITENDU Thu Mar 11, 06:52:00 pm  

मर्मस्पर्शी भाव

संगीता स्वरुप ( गीत ) Sat Mar 13, 10:14:00 am  

वीरेंद्र जी ,
सही कहा आपने इंसान भी कहाँ सिमट पाता है ।

संगीता स्वरुप ( गीत ) Sat Mar 13, 10:14:00 am  

कुमार गौरव ,शुक्रिया

Amrita Tanmay Thu Apr 01, 01:58:00 pm  

किरचों की चुभन , छलनी हुआ मन ।

संगीता स्वरुप ( गीत ) Fri Apr 02, 12:59:00 am  

अमृता ,
आप ब्लॉग पर सक्रीय रहीं यह देख कर बहुत अच्छा लग रहा है . शुक्रिया

virendra sharma Tue Apr 06, 08:25:00 pm  


ख्वाहिश थी मिरि ,

कभी मेरे लिए

तेरी आँख से

एक कतरा क़तरा निकले

भीग जाऊँ मैं

इस क़दर उसमें

कि समंदर भी

उथला निकले ।

छोटी नज़्म कहें या क्षणिका बेहद खूबसूरत ख्याल है।

क्षेपक :

ख्वाइश थी मिरि ,

मौत बन तू आये ,

बादे मर्ग ,

तेरे साथ रहूं।

विशेष :बादे मर्ग= मौत के बाद।

छोटी बहर की अतिथि नज़्म :संगीता स्वरूप गीत

सहभावी -सहभागी :वीरुभाई (वीरेंद्र शर्मा )

Subodh Sinha Wed Jul 14, 06:19:00 pm  

"मैं भी तो यूँ ही
बिखरी थी टूट कर।" ... बहुत ही मार्मिक बिम्ब .. काँच के गिलासों की हर छोटी-बड़ी किरचों को, भले ही अपनी हथेली घायल करके, तो फिर भी हम समेट कर कर्कट को सौंप देते हैं पर .. स्वयं के बिखरने पर, स्वयं ही बिखरना होता है, स्वयं ही समेटना होता है, स्वयं ही लड़खड़ाना होता है, स्वयं ही सम्भालना होता है .. कोई दूसरा कहाँ आ पाता है भला .. शायद ...

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