कुछ विशेष नहीं है जो कुछ अपने बारे में बताऊँ...
मन के भावों को
कैसे सब तक पहुँचाऊँ
कुछ लिखूं या
फिर कुछ गाऊँ
।
चिंतन हो
जब किसी बात पर
और मन में
मंथन चलता हो
उन भावों को
लिख कर मैं
शब्दों में
तिरोहित कर जाऊं ।
सोच - विचारों की शक्ति
जब कुछ
उथल -पुथल सा
करती हो
उन भावों को
गढ़ कर मैं
अपनी बात
सुना जाऊँ
जो दिखता है
आस - पास
मन उससे
उद्वेलित होता है
उन भावों को
साक्ष्य रूप दे
मैं कविता सी
कह जाऊं.
हा ! महीन कांच की किरचें जिस तरह कई दिनों तक मिलती रहती हैं,उसी तरह मन को समेटने के बाद भी चोटें रह-रह कर दुखती हैं । आपने सरल और सहज शब्दों में यह बात बखूबी कह दी है ।
आदरणीया संगीता दी, आपकी पाँच लिंकों की विशेष प्रस्तुति भी देखी थी, किंतु मैं उस पर नहीं लिख पाई क्योंकि मेरे चाचाजी के देहावसान की खबर मिलने से मन व्यथित हो गया था। बहुत अच्छा लगता है जब हमारे पुराने और अनुभवी ब्लॉगर्स का लिखा हुआ कुछ पढ़ने को मिलता है और वे अपने हमसे अपने अनुभव बाँटते हैं। ब्लॉग जगत भी एक परिवार सा ही लगता है अब। ज्यादा दिन तक इससे दूर नहीं रह पाते हैं। आपके समय के ब्लॉगर्स पुनः सक्रिय होंगे तो हम सभी को बहुत अच्छा लगेगा। सादर।
सारी किरचें एक बार में ही , लेकिन जब तब दिख ही जाती हैं ... सच में, सारी किरचें एक बार में समेटी नहीं जाती हैं दी, एकाध टुकड़ा घर के/मन के कोने में पड़ा मिल ही जाता है देर सबेर....
"मैं भी तो यूँ ही बिखरी थी टूट कर।" ... बहुत ही मार्मिक बिम्ब .. काँच के गिलासों की हर छोटी-बड़ी किरचों को, भले ही अपनी हथेली घायल करके, तो फिर भी हम समेट कर कर्कट को सौंप देते हैं पर .. स्वयं के बिखरने पर, स्वयं ही बिखरना होता है, स्वयं ही समेटना होता है, स्वयं ही लड़खड़ाना होता है, स्वयं ही सम्भालना होता है .. कोई दूसरा कहाँ आ पाता है भला .. शायद ...
38 comments:
टूटे हुए को कितना भी समेटूँ
कुछ किर्चियों की चुभन ताउम्र रूलाती है।
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मर्मस्पर्शी भाव गढ़े हैं दी।
कम शब्दों में सबकुछ कह देना हुनर है।
सादर।
किरचें फिर भी कहीं न कहीं रह जाती है
जिंदगी में सबको समेटे रखना आसान नहीं रहता
बहुत सुन्दर
बहुत मर्मस्पर्शी सृजन । टूटा काँच और मन कहाँ जुड़ पाते हैं ...गहन भावाभिव्यक्ति ।
मनग्राही बेहतरीन कविता...
मन को छूती बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
सादर
किरचें तो रह ही जातीं हैं कितना भी समेट लो। हृदयस्पर्शी पंक्तियां।
श्वेता ,
मन के भाव में तक पहुँचे । बहुत बहुत शुक्रिया ।
शास्त्री जी ,
बहुत बहुत आभार
कविता जी ,
कहाँ आसान होता है ज़िन्दगी को समेटना । आभार ।
यशोदा ,
हृदय से आभार ।
मीना जी ,
कम शब्दों से भी आप जुड़ गयीं
आभार
शुक्रिया वर्षा जी ।
अनिता ,
पसंद करने के लिए आभार ।
शिखा ,
किरचें हैं तो चुभेगी ही न । बात दिल तक पहुँची । शुक्रिया
इतने कच्चे काँच सा
क्यूँ होता है ये मन
कि-
हाथ से छूटा और
छन्न से बिखर गया
🌹 बहुत सुन्दर रचना संगीती जी👌👌
बस मन तो कच्चे काँच से होता है। क्या करें अब ऐसा ही है मेरा मन 😄😄😄😄
मन के क्या कहने ..
कब कांच सा टूटकर बिखर जाए..
कब शिलाओं जैसा पत्थर दिल हो जाए..
किसके बस में रहा है ये..टूटने में सबसे आगे रहा है ये..
अद्भुत लेखन
गहन भाव
मन के भावों के आगे भी भाब बढ़ाये तुमने ।सच है पत्थर भी हो जाता है कभी कभी । शुक्रिया जिज्ञासा ।
अनिता , आभार
हा ! महीन कांच की किरचें जिस तरह कई दिनों तक मिलती रहती हैं,उसी तरह मन को समेटने के बाद भी चोटें रह-रह कर दुखती हैं । आपने सरल और सहज शब्दों में यह बात बखूबी कह दी है ।
आदरणीया संगीता दी, आपकी पाँच लिंकों की विशेष प्रस्तुति भी देखी थी, किंतु मैं उस पर नहीं लिख पाई क्योंकि मेरे चाचाजी के देहावसान की खबर मिलने से मन व्यथित हो गया था। बहुत अच्छा लगता है जब हमारे पुराने और अनुभवी ब्लॉगर्स का लिखा हुआ कुछ पढ़ने को मिलता है और वे अपने हमसे अपने अनुभव बाँटते हैं। ब्लॉग जगत भी एक परिवार सा ही लगता है अब। ज्यादा दिन तक इससे दूर नहीं रह पाते हैं। आपके समय के ब्लॉगर्स पुनः सक्रिय होंगे तो हम सभी को बहुत अच्छा लगेगा। सादर।
सारी किरचें
एक बार में ही ,
लेकिन जब तब
दिख ही जाती हैं ...
सच में, सारी किरचें एक बार में समेटी नहीं जाती हैं दी, एकाध टुकड़ा घर के/मन के कोने में पड़ा मिल ही जाता है देर सबेर....
गहन भाव, मन को छूती सच्ची बात बताती सुंदर बहुत ही सुंदर रचना, महिला दिवस की बधाई हो, नमन
नुपुरं ,
मन के भाव कितनी खूबसूरती से तुमने समझ कर लिख दिए । बहुत सा शुक्रिया
ओह, दुखद समाचार दिया ईश्वय इस घड़ी आपको दुख सहने की क्षमता दे ।
सक्रिय होने का प्रयास कर रही हूँ बाकी तो सबको स्वयं ही सक्रिय होने होगा । आभार
रचना को सराहने के लिए दिल से आभार
ज्योति ,
आपको भी महिला दिवस की शुभकामनाएँ ।
रचना को सराहने के लिए शुक्रिया।
एक बार में सभी कुछ समेटना कहाँ सम्भव हो पाता है... सुन्दर कविता....
सुंदर और हृदयस्पर्शी सृजन। इंसान और काँच में ये समानता है। दोनो जब टूटते हैं तो समेटना मुश्किल होता है। सादर।
मर्मस्पर्शी भाव
शुक्रिया विकास जी
वीरेंद्र जी ,
सही कहा आपने इंसान भी कहाँ सिमट पाता है ।
कुमार गौरव ,शुक्रिया
किरचों की चुभन , छलनी हुआ मन ।
अमृता ,
आप ब्लॉग पर सक्रीय रहीं यह देख कर बहुत अच्छा लग रहा है . शुक्रिया
ख्वाहिश थी मिरि ,
कभी मेरे लिए
तेरी आँख से
एक कतरा क़तरा निकले
भीग जाऊँ मैं
इस क़दर उसमें
कि समंदर भी
उथला निकले ।
छोटी नज़्म कहें या क्षणिका बेहद खूबसूरत ख्याल है।
क्षेपक :
ख्वाइश थी मिरि ,
मौत बन तू आये ,
बादे मर्ग ,
तेरे साथ रहूं।
विशेष :बादे मर्ग= मौत के बाद।
छोटी बहर की अतिथि नज़्म :संगीता स्वरूप गीत
सहभावी -सहभागी :वीरुभाई (वीरेंद्र शर्मा )
"मैं भी तो यूँ ही
बिखरी थी टूट कर।" ... बहुत ही मार्मिक बिम्ब .. काँच के गिलासों की हर छोटी-बड़ी किरचों को, भले ही अपनी हथेली घायल करके, तो फिर भी हम समेट कर कर्कट को सौंप देते हैं पर .. स्वयं के बिखरने पर, स्वयं ही बिखरना होता है, स्वयं ही समेटना होता है, स्वयं ही लड़खड़ाना होता है, स्वयं ही सम्भालना होता है .. कोई दूसरा कहाँ आ पाता है भला .. शायद ...
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