मानव
मन के उच्छ्वास को
शब्दों में पिरो
विचारों को साध कर
अनुभव के हलाहल को पी
अश्रु की स्याही से
उकेर देता है
अपनी भावनाओं को
और हो जाता है
सृजन कविता का
फिर भावनाएं
निजत्व से निकल
विश्वत्व की ओर
कर जाती हैं प्रस्थान .
मानव जब विचारों इस तरह साधकर रचता है तो कविता विश्वत्व की और प्रस्थान कर जाती है ..गहन अभिव्यक्ति..
ReplyDeleteनिजत्व से विश्वत्व की ओर जाना ....ही कविता के सृजन की कसौटी बन जाता है.सुन्दर बात!!
ReplyDeleteनिजत्व से विश्वत्व की ओर जाना ही सृजन की सार्थकता है..........गहन अभिव्यक्ति...........
ReplyDeleteव्यक्ति से विश्व तक।
ReplyDeleteसशक्त और प्रभावशाली रचना.....
ReplyDeleteअनुभव के हलाहल को पी
ReplyDeleteअश्रु की स्याही से
उकेर देता है
अपनी भावनाओं को ..sahi nd satik abhiwaykti sangeeta jee....
निजत्व से निकल
ReplyDeleteविश्वत्व की ओर
कर जाती हैं प्रस्थान........वाह: संगीता जी बहुत सुन्दर भाव उकेरा है....बहुत सुन्दर...
jo jitnaa chaahe aachman kar le uskaa
ReplyDeletesundar bhaav
wah.....bahut sunder.
ReplyDeleteनिजत्व से विश्वत्व की तरफ जाते बधुत्व का आधार मिलता है ...
ReplyDeleteव्यष्टि से समष्टि की ओर की यात्रा और सृजन की प्रक्रिया का सीधा चित्रण. सुंदर.
ReplyDeleteमन के उच्छ्वास को
ReplyDeleteशब्दों में पिरो
विचारों को साध कर
अनुभव के हलाहल को पी
अश्रु की स्याही से
उकेर देता है
सुन्दर भाव चित्रण !
फिर भावनाएं
ReplyDeleteनिजत्व से निकल
विश्वत्व की ओर
कर जाती हैं प्रस्थान .…………काश ये बात ये दुनिया समझ पाती ………कौन चाहता है सबका कल्याण आज सब अपने लिये ही सोचते या कहते हैं ये सिर्फ़ ढोंग है कि हम चंद शब्द पर वाह वाही कर देते हैं मगर समग्रता से स्वीकार कब कर पाते हैं जिस दिन सच मे निज से निकल समाज के लिये कुछ करेगा या कहेगा और स्वीकारेगा तभी बदलाव वास्तविक होगा
baat niklegi to door talak jaayegi
ReplyDeletenijatv se vishvatv ki aur ...bahut umda bhaav ati sundar.
आज कविता और पाठक के बीच दूरी बढ़ गई है । संवादहीनता के इस माहौल में आपकी यह कविता इस दूरी को पाटने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम माना जा सकता है।
ReplyDeleteकविता का काम जुड़ना और जोड़ना है यानी निजत्व से विश्वत्व की ओर।
फिर भावनाएं
ReplyDeleteनिजत्व से निकल
विश्वत्व की ओर
कर जाती हैं प्रस्थान
अनुपम भाव लिए सार्थक सुंदर रचना...बेहतरीन पोस्ट .
MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: आँसुओं की कीमत,....
और हो जाता है
ReplyDeleteसृजन कविता का
फिर भावनाएं
निजत्व से निकल
विश्वत्व की ओर
कर जाती हैं प्रस्थान .
व्यापक दृष्टिमय इस सुन्दर कविता के लिए हार्दिक शुभकामनायें एवं साधुवाद !
वाह वाह ..भावनाओं का निजता से सार्वजानिक होने तक..
ReplyDeleteक्या बात है.गहन अभिव्यक्ति .
कविता तो भावनाओ का वैश्वीकरण ही है ..सुँदर प्रकटन . आभार .
ReplyDeleteस्व से स्वजन होता चिंतन ....
ReplyDeleteया हम अर्थशास्त्र वाले कहेंगे ...From Micro to Macro ....छोटी सी कविता गहन बात कह रही है ....!!बहुत अच्छी लगी ये कविता ....!!
शुभकामनाएं...
nijta se sarvjanikta tak aate aate kitne dard se guzarna padta hai yeh ek likhne wala hi jaan sakta hai.
ReplyDeletesunder prastuti.
अनामिका जी की बातों से सहमत हूँ.
ReplyDeleteगहन भाव लिए सशक्त रचना.
फिर भावनाएं
ReplyDeleteनिजत्व से निकल
विश्वत्व की ओर
कर जाती हैं प्रस्थान .
sundar bat kahi...
लेखक विश्वत्व की भावना रख कर ही सार्थक रचना कर सकता है , वरना सिर्फ आत्म मुग्धता की स्थिति ही बनी रहे !
ReplyDeleteफिर भावनाएं
ReplyDeleteनिजत्व से निकल
विश्वत्व की ओर
कर जाती हैं प्रस्थान .
बहुत ही बढिया।
कविता का सर्जन वाकई ऐसे ही होता है.... रचना में अथाह गहराई है....
ReplyDeleteसर्वप्रथम बैशाखी की शुभकामनाएँ और जलियाँवाला बाग के शहीदों को नमन!
ReplyDeleteआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार के चर्चा मंच पर लगाई गई है!
सूचनार्थ!
Kya gazab likhtee hain aap!
ReplyDeleteथोड़ी सी पंक्तियों में आपने कविता की सम्पूर्ण जीवन यात्रा की कहानी कह दी संगीता जी ! बहुत ही सुन्दर एवं सार्थक रचना ! बहुत खूब !
ReplyDeleteसंगीता दी,
ReplyDeleteकवि के मस्तिष्क की कोख से जन्मी, पाठक के ह्रदय तक की यात्रा का सहज वर्णन इस छोटी सी कविता में.. आप ही कर सकती हैं!!
प्रणाम!!
bahut sundar .badhai
ReplyDeleteLIKE THIS PAGE AND WISH INDIAN HOCKEY TEAM FOR LONDON OLYMPIC
सीमित आत्म से विश्वात्म तक की मनो-यात्रा -
ReplyDeleteसुन्दर !
बहुत बढ़िया प्रस्तुति |
ReplyDeleteबधाईयाँ ||
फिर भावनाएं
ReplyDeleteनिजत्व से निकल
विश्वत्व की ओर
कर जाती हैं प्रस्थान
शायद विश्वत्व ही तो कविता का लक्ष्य है
फिर भावनाएं
ReplyDeleteनिजत्व से निकल
विश्वत्व की ओर
कर जाती हैं प्रस्थान
bahut khoob .... aabhar
व्यष्टि से समष्टि की ओर जाना ही सामाजिकता है।
ReplyDeleteकविता की यही विडम्बना है कि उसे अश्रु की स्याही से लिखा जाता है। इसी के चलते,उसका वैश्विक स्वर खोया है।
ReplyDeleteकागज़ पर उतरने के बाद न तो भावनाएँ अपनी रहती हैं न शब्द। वे सब के हो जाते हैं। बिल्कुल सही लेकिन जब भावनाएँ उमड़ती हैं तो हाथ स्वत: कागज़-कलम की ओर बढ जाते हैं।
ReplyDeleteसुंदर कविता
एक कलमकार की कलम की सार्थकता इसी में होती है कि वह निजत्व को तज कर विश्वत्व में ही लगा रहे. वह एक समर्थ सन्देश वाहक और प्रभावशाली सन्देश समाज को देता है.
ReplyDeleteऔर हो जाता है
ReplyDeleteसृजन कविता का
फिर भावनाएं
निजत्व से निकल
विश्वत्व की ओर
कर जाती हैं प्रस्थान
bahut khoob sunder bhavon se saji anubhutiyan
rachana
"फिर भावनाएं
ReplyDeleteनिजत्व से निकल
विश्वत्व की ओर
कर जाती हैं प्रस्थान."
वाह संगीता दी कविता की सार्थकता का प्रमाण प्रस्तुत कर दिया.
बहुत सुंदर
शाश्वत सत्य...व्यष्टि से समष्टि ..अति सुन्दर लिखा है आपने..
ReplyDeleteक्या कहने
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDelete♥
हो जाता है
सृजन कविता का
फिर भावनाएं
निजत्व से निकल
विश्वत्व की ओर
कर जाती हैं प्रस्थान…
व्यष्टि से समष्टि ही तो है श्रेष्ठ पथ !
सुंदर रचना के लिए आभार !
मंगलकामनाओं सहित…
-राजेन्द्र स्वर्णकार
फिर भावनाएं
ReplyDeleteनिजत्व से निकल
विश्वत्व की ओर
कर जाती हैं प्रस्थान .
...कितने कम शब्दों में अपनी एक रचना के सर्जन से लेकर अमर होने तक की गाथा लिख दी ....सच कविता मुखरित होते ही कवि की अपनी धरोहर नहीं रह जाती ......!!!
निजत्व से विश्वत्व की ओर... रचना की सार्थकता भी इसी से है . गहरी अभ्व्यक्ति . आभार .
ReplyDeleteआपकी कविता की हर एक पंक्ति अपने आप में एक गहन भाव चौपाये होती है इसलिए किसी एक पंक्ति को चुनकर उस अपर कुछ पाना मेरे लिए तो संभव नहींअतः बस इतना ही कह सकती हूँ कि भूषण अंकल कि बात से पूर्णतः सहमत हूँ। :)प्रभावशाली गहन भावव्यक्ति....
ReplyDeleteव्यापक सन्देश देती कविता..
ReplyDeleteफिर भावनाएं
ReplyDeleteनिजत्व से निकल
विश्वत्व की ओर
कर जाती हैं प्रस्थान .
ati sundar
सच है निज से बाहर आ के ही तो विश्वत्व कों पाया जा सकता है ... गहरी अभुभूति ...
ReplyDeleteफिर भावनाएं
ReplyDeleteनिजत्व से निकल
विश्वत्व की ओर
कर जाती हैं प्रस्थान .
कृपया अवलोकन करे ,मेरी नई पोस्ट ''अरे तू भी बोल्ड हो गई,और मै भी'
sunder likha hai sangeeta ji
ReplyDeleteबहुत बारीक-सी कहन...मन को छूने वाली...
ReplyDeleteभावना रूपी नदी जब उफान पर होती है...तब कुछ कुछ ऐसा ही दृश्य निर्मित होता है!...बहुत सुन्दर कृति!...आभार!
ReplyDeleteवाह ....बहुत खूब कितना सुन्दर शब्द समायोजन है
ReplyDeleteमंजिल सबकी एक ही है....
ReplyDeleteरास्ते अलग अलग हो सकते हैं...!
सुंदर अभिव्यक्ति...!!
सुन्दर कविता... छोटी और सारगर्भित...
ReplyDeleteगहरी अभुभूति .
ReplyDeleteआपकी यह सुन्दर प्रस्तुति इस बार चिरंतन के सृजन/ Creation विशेषांक में ली गयी है . आभार .
ReplyDeleteurl - sachswapna.blogspot.com
शब्दों में पिरो
ReplyDeleteविचारों को साध कर
अनुभव के हलाहल को पी
अश्रु की स्याही से
उकेर देता है
अपनी भावनाओं को
और हो जाता है
सृजन कविता का
कविता के सृजन की प्रक्रिया का बहुत सुंदर और सटीक प्रस्तुतीकरण...
सादर
मंजु