सर ए राह
मुड़ गए थे कदम
पुराने गलियारों में
अचानक ही
मिल गयीं थीं
पुरानी उदासियाँ
पूछा उन्होंने
कैसी हो ? क्या हाल है ?
मुस्कुरा कर
कहा मैंने
मस्तम - मस्त
बसन्त छाया है ।
सुनते ही इतना
जमा लिया कब्ज़ा
उन्होंने मेरे ऊपर
और -
बसन्त मुरझा गया ।
कहा मैंने
ReplyDeleteमस्तम - मस्त
बसन्त छाया है ।
सुनते ही इतना
जमा लिया कब्ज़ा
उन्होंने मेरे ऊपर
और -
बसन्त मुरझा ..
मर्मस्पर्शी भावाभिव्यक्ति ।
आभार मीना जी ।
Deleteखूब।
ReplyDeleteआभार ।
Deleteबहुत सुन्दर और सारगर्भित रचना।
ReplyDeleteशास्त्री जी शुक्रिया
Deleteइन उदासियों को मूंह लगाना ही नहीं चाहिए। झिटक दो जहाँ मिलें।
ReplyDeleteबस जी छिटक दीं, तुम कहो और न माने ये तो हो नहीं सकता न
Deleteये उदासी किसी न किसी बहाने दस्तक दे ही देती है..बड़ी बेशर्म है..सुन्दर कृति के लिए हार्दिक शुभकामनाएं..
ReplyDeleteसच्ची , बड़ी बेशर्म हैं । सोच कर हँसी आ रही है । शुक्रिया जिज्ञासा । उदासी में भी हँसाने का ।
Deleteलाजवाब, बहुत ही सुंदर रचना संगीता जी, बधाई हो
ReplyDeleteशुक्रिया ,ज्योति ।
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना आज शनिवार 27 फरवरी 2021 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन " पर आप भी सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद! ,
आभार , श्वेता ।
Deleteवाह!मन को छूती बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteसादर
शुक्रिया अनिता
Deleteउफ ! ... उदासियों से मुलाक़ात की कितनी निराली बयानगी !
ReplyDeleteसाधुवाद आदरणीया 🙏
शुक्रिया वर्षा जी । आप महसूस कर सकीं ।
ReplyDeleteसारगर्भित, विचारणीय, जिंदगी के रंग में खुशियों के साथ उदासियां भी हैं ही, आइए खुशियों बरसाएं और पाएं जय हो
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर रचना संगीता जी
ReplyDeleteबस एक बार ये उदासियाँ दूर से भी मन को को झाँक ले तो मन का हर बंसत मुरझा जाता है...
ReplyDeleteगलती मन की है उसने सर आँखों जो बिठा दिया इन उदासियों को...।
बहुत ही लाजवाब।