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कुनकुनी धूप

>> Sunday 25 December 2011


 



धूप जो निकली है 
कुनकुनी सी 
मन होता है कि  
घूंट घूंट पी लूँ  
तृप्त हो जाऊं 
तो फिर मैं 
झंझावातों की 
आंधियां भी जी लूँ .


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तपिश

>> Sunday 4 December 2011





मैं 
समंदर के साहिल पर 
भीगी रेत सी 
ज़रा सी कोशिश से  
बन जाती हूँ 
एक घरौंदा 
और फिर 
न जाने कौन सी  
तपिश से 
यूँ ही 
बिखर जाती हूँ 


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रफ़्तार

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