अनजाने अक्स
>> Tuesday, 15 June 2010
कभी कभी
तन्हाई में
टिक जाती है
नज़र
कहीं शून्य में
उतरने लगते हैं
अक्स
जान - पहचान
और
और
अनजान लोगों के...
और मैं घबरा कर
बंद कर लेती हूँ पलकें
धीरे धीरे
धुंधले से
होने लगते हैं
सारे अक्स
और
रह जाती है
मात्र एक
सपाट दीवार .
51 comments:
हम्म..चेहरे बहुत कुछ याद दिला देते हैं...और घबरा कर आँखें बंद करनी पड़ती हैं...संवेदनशील पंक्तियाँ
खाली बैठे यही होता है :) बहुत कुछ जाना - अनजाना देख जाता है ..बहुत बढ़िया कविता है .
और मैं घबरा कर
बंद कर लेती हूँ पलकें
सही कहा आपने आजकल जीवन ऐसे पल कम ही आने लगे है जिन्हें याद करके उल्लास से आँखे और चौड़ी हो जाये .
एकाकी पन का कटु अहसास सुन्दरता के साथ पिरोया आपने अपनी रचना में !
धीरे धीरे
धुंधले से
होने लगते हैं
सारे अक्स
और
रह जाती है
मात्र एक
सपाट दीवा
shandar
sahi kaha kuch yaadein yunhi shoony me aakar aksar pareshan karti hain...bahut sundar rachna...
बहुत सुन्दर ! भावों के तरण ताल में डूबते हुए बहुत कुछ रचा जाता है लेकिन ये एकदम सहज अनुभूति को जिस ढंग से शब्दों में ढाला है न, बहुत सशक्त लेखनी का प्रतीक है.
Bahut sundar alfaaz...par palken band karke bhi,zehan se aks nahi mitte...kya karen?
....बेहतरीन रचना!!!
madam aankh band kar ke bhi. nahi mit paati dil se yadon ka tufaan
बहुत सुन्दर ,बेहतरीन रचना!!!
behad sadhi hui kavita...pura bhaw nikal kar samne aata hua.
badhai
बेहतरीन रचना!!
सुन्दर भावपूर्ण रचना...बधाई
नीरज
धीरे धीरे
धुंधले से
होने लगते हैं
सारे अक्स
और
रह जाती है
मात्र एक
सपाट दीवार .
"कितने अजीब अजीब एहसास से गुजर होता है हमारे जहन का......लाजवाब
regards
धीरे धीरे
धुंधले से
होने लगते हैं
सारे अक्स
............yahi rahta hai saar
शायद ऐसी स्थिति को ही योग कहते हैं .. जब सब कुछ निकल जाए ... शून्य ही शून्य हो बस ....
आंख मूद ही लिया करिए .....मूदहु आँख कतहु कुछ नाहीं !
कुछ कहती है कविता !
hehehe..ye to googly ho gayi mumma..ek kahani padhi thi ..face on the wall... usme na...ek aadmi ke ghar ki deewar pe chehra ubharne lagta hai ..dheere dheere roz wo spasht hota jata hai ...aapki nazm me to ulta ho gaya...lekin kitni sahi bat hai ...
तन्हाई के विचारो का आइना खूबसूरती से पेश किया आपने.
ध्यान के अददभुत अनुभव का सजीव वर्णन किया है ऐसा ही ओशो ने भी कहीं लिखा है... बहुत ही..
बहुत सुन्दर भावप्रवण रचना।
यह कविता विषय को कलात्मक ढंग से प्रस्तुत करती है ।
धीरे धीरे
धुंधले से
होने लगते हैं
सारे अक्स
और
रह जाती है
मात्र एक
सपाट दीवार .
बेहद भावपूर्ण सुंदर रचना....
meree samajh se oochee soch hotee hai aapkee.......
एक अनुभव जिससे हर कोई रू ब रू होता है आए दिन... आज जब आपने उन्हें अल्फाज़ दे दिए तो लगा जैसे उस बात में गिरह लग गई...
गज़ब का एहसास पिरोया है
गज़ब का निरीक्षण है आपका
अक्स फिर उभरेंगे
well..thts the truth..at the end ..we always find ourselves alone!!!
do see my new poem "Ye kaisa samaaj!!"
aapki shailly lajabab hai, ek dum seedhe sapat sabdo me apne mann ki baato ko dusre se jod leti hai...:)
hamesha ki tarah ek khubsurat rachna!
वैसे तो हमेशा ही आपका लेखन शानदार रहता है लेकिन आज उसमें गंभीरता का चटखपन ज्यादा है। इतना सुंदर आप सब लोग कैसे लिख लेते हैं, कई बार यही सोचकर मैं दुविधा में पड़ जाता हूं। शायद अभी मुझे अनुभव के तौर पर बहुत कुछ हासिल करना है।
संगीता जी दीवार सपाट नहीं होती है वहां वह लिखा होता है जिसे हम अभी तक नहीं पढ़ पाए हैं।
और मैं घबरा कर
बंद कर लेती हूँ पलकें
wakai..palko ka yun band hona badh gaya hai aajkal
आपकी रचना हर बार कुछ सोचने के लिए नया आयाम दे जाती है। जैसे गांधारी वाली कविता थी।
आपको बधाई।
jab man bhari ho jaata hain,
aur tanhai main man ghabraata hain,
to us anant vichaaro ki gehrai main yeh dil humko le jaata hain,
tabhi to hume yuhi jaane anjaane chehare ka deedar ho jaata hain.
bahut khub....bahut sundar rachna
आप भावनाओं के बिखरे मोती कैसे शब्दों में पिरो देती हैं... बहुत अच्छी लगी ये कृति.
सुन्दर कविता...
धीरे धीरे
धुंधले से
होने लगते हैं
सारे अक्स
और
रह जाती है
मात्र एक
सपाट दीवा...
भावपूर्ण पंक्तियाँ....
सुन्दर गीत लिखा आपने ..बधाई.
होता है होता है बहुत बार होता है। सुन्दर अभिव्यक्ति शुभकामनायें
अब इतनी जोर से भी आँखें बंद मत कीजिये संगीता जी ......
वैसे ये चेहरा आपका तो नहीं ........??
harkirat ji to maja laga di ,rachna wakai sundar hai ek dhoondhali tasvir khyalo me basi hoti hai .
बहुत सुन्दर...
आप हमारी श्रद्धेय हैं... इसलिए सीधा पूछने का दुःसाहस कर रहा हूँ... हमसे नाराज़ हैं क्या? कुछ लोगों की नाराज़गी खलती है और न आना और भी खलता है, इसलिए सोचा सीधा पूछ लूँ... अपने किसी अनकिए अनजाने अपराध की क्षमा सहित… आपके उत्तर की प्रतीक्षा रहेगी!!
यही धुंधले अक्स समय आने पर फिर से स्पष्ट उभर आते हैं.
धीरे धीरे
धुंधले से
होने लगते हैं
सारे अक्स
और
रह जाती है
मात्र एक
सपाट दीवार..............
सही लिखा जी
क्या बात है संगीता जी...बहुत सुन्दर.
यह तो बहुत कठिन प्राणायाम है!
--
इसे कर पाना सबके वश की बात नहीं!
कुछ अक्स डरावने भी हो जाते हैं...
wah wah! kya baat hai!
log on http://doctornaresh.blogspot.com/
i just hope u will like it!
bauhat sundar
और रह जाती है एक सपाट दीवार। ख़ूबसूरत लाइनें
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