इल्जाम
>> Thursday, 16 October 2008
सीने मैं दर्द को दफ़न हम यूँ कर रहे हैं,
कि जहाँ के साथ हम भी हंस रहे हैं,
इस आशियाने मैं पतंगे की माफिक जल रहे हैं,
और इल्जाम हम पर ही कि हम क्यों मर रहे हैं।
खलिश होती है तो यूँ ही बयां होती है , हर शेर जैसे सीप से निकला हुआ मोती है
© Free Blogger Templates Wild Birds by Ourblogtemplates.com 2008
Back to TOP
1 comments:
maro na e jaanaa..mere paas aao
dard sine ka mujhse na chhupao..
jalna he to aao pyaar me jal jaaye..
zindgi k vark pe muhobbat ko amar kar jaye..!!
Post a Comment