अजीज़
>> Thursday, 8 January 2009
बेरूखी भी तेरी मुझे अजीज़ है
क्यूँ कि वो भी तेरी दी हुई चीज़ है
तू लाख मुंह फेरे मुझसे ओ जाने - जाना
फ़िर भी तू मेरे दिल के करीब है ।
खलिश होती है तो यूँ ही बयां होती है , हर शेर जैसे सीप से निकला हुआ मोती है
हर बार अपनी चाहत के हम गुनहगार हुए जाते हैं
कही - अनकही हर बात पर वो यूँ ही तोहमत लगाते हैं
सुनते हैं हर बात उनकी दिल औ जान से हम
फिर भी वो हैं कि हमसे खफा हुए जाते हैं ।
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बेनूर सी आंखों में , ख़्वाबों की चमक दी है
एहसास -ऐ - अकेलेपन को , चाहत की कसक दी है
लगता है कि तेरे बिन ये साँसे , चलती भी नही हैं
इस कदर मेरी ज़िन्दगी को तूने रौनक दी है.
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