कताई
>> Friday, 31 December 2010
ख़्वाबों की पुनिया को
आँखों की तकली से
काता है शिद्दत से
सारी ज़िंदगी मैंने
कभी तो मन माफिक
सूत मिले ,
आज भी कातना
बदस्तूर जारी है ...
खलिश होती है तो यूँ ही बयां होती है , हर शेर जैसे सीप से निकला हुआ मोती है
मन की अगन को
बढा देती हैं
काम , क्रोध,
मोह , लोभ
की आहुतियाँ .
बढ़ाना है
गर इसको
तो
बहानी होगी
प्रेम की निर्मल धारा .
बढाने के दो अर्थ हैं --
१--- अधिक करना
२-- बुझाना
© Free Blogger Templates Wild Birds by Ourblogtemplates.com 2008
Back to TOP