धुंधली लकीरें ...
>> Monday, 6 December 2010
लोग कहते हैं कि
हथेली की लकीरों में
किस्मत लिखी होती है .
मेरी किस्मत भी
स्याह स्याही से लिखी थी .
फिर भी लकीरें
धुंधली हो गयीं .
और अब
मेरी किस्मत
कोई पढ़ नही पाता .
धुंधली होती लकीरें
एक जलन का
एहसास कराती हैं
और मुझे
तन्हाई में ले जाती हैं
जहाँ मैं खुद ही ,
खुद को नही पढ़ पाती हूँ.
82 comments:
हाथों की लकीरें वह पढते हैं जिन्हें अपने आप पर भरोसा नहीं होता .
आप उन्हें पढ़ना छोडिये और कविता लिखिए :)
भावपूर्ण अभिव्यक्ति :)
आपकी योग्यता किस्मत की बेहतरीन लकीरों को जन्म देने वाली है.पिछली लकीरें आपके आगे नतमस्तक होकर पतली गली से निकल लेने में ही अपनी भलाई समझ रही हैं.
मेरी नई पोस्ट देखने की कृपा करें.
आज तो बहुत मार्मिक चित्रण कर दिया…………
खुद पर भरोसा करने वालों की तो
हाथ की लकीरें भी बदल जाती हैं
किस्मत के सितारे उनके भी चमकते हैं जिनके हाथ ही नहीं होते।
जरुरत है उपरवाले की एक सीधी नजर की।
कुछ लोग इन लकीरों को न पढते हैं न पढवाते है।
कुछ गढते हैं।
कुछ लकीरों के भरोसे बैठे रहते हैं।
और कवि/कवयित्री ... (यानी आप भी) ... तो जहां से शुरु कर दे लकीर वहीं से बन जाती है, तभी तो कहते हैं जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि।
कविता .... कैसी लगी /// ?
सच कह दूं ....?
itna dard kyon....man chhune wali rachna
हाथ की लकीरे लिखता है ईश्वर ऐसा कहा जाता है, अपने हाथों से खीच लें तो उन्हें कोई मिटा नहीं सकता है. बस हौसलों में बुलंदी हो और नजर अपने लक्ष्य पर हो.
धुंधली होती लकीरें
एक जलन का
एहसास कराती हैं
और मुझे
तन्हाई में ले जाती हैं
जहाँ मैं खुद ही ,
खुद को नही पढ़ पाती हूँ.
xxxxxx
अंत में जाकर ऐसा लगता है , कि कविता रहस्यवाद में परिवर्तित हो जाती है ....तभी तो व्यक्ति को तन्हाई का एहसास होता है ....और व्यक्ति खुद को नहीं पढ़ा पाता ...बस महसूस करता है ...आनंद को .....शुक्रिया
किसी की किस्मत वैसे भी ना स्वयं और ना कोई पढ़ नहीं पाता, ये लकीरे तो भ्रम पैदा करती हैं। कुछ कर गुजरने का जज्बा हो तो लकीरे तो अपने आप प्रखर होकर बोलने लगती हैं। आपकी लकीरे और उनकी स्याही बहुत स्पष्ट दिख रही है आपकी कृतियों में। ये खूब चमकेगी, विश्वास रखिए।
आपकी छोटी कवितायें विस्मित कर देती हैं.. सुन्दर कविता..
चंद लकीरों का धुन्धलाना कर्म वीरो के कर्मठता पर कोई असर नहीं छोड़ती . आप यू ही लिखती रहे. और कर्मठता की लम्बी सी लकीर खिचती रहे .
ekdam bhawbhini kavit.bahut achchi lagi.
बहुत गहन अभिव्यक्ति!
बहुत सुन्दर रचना!
आपकी सोच की उड़ान बहुत ऊँची है!
--
हमारी भी लकीरे धुँधली पड़ने लगी हैं!
--
चश्में से ही देख पाते हैं!
--
अब तो अगले जन्म में ही नई लकीरे मिल पायेंगी!
bhavpurn abhivykti....
waah.. Shaandaar kavita masi.. Love u
माफ़ कीजियेगा संगीता जी ..
चिट्ठाजगत की बस खराब होने के कारण देर हो गयी....
ये लकीरें धुंधली कैसे हो गयी ?? शायद घने कोहरे के कारण परेशानी हो रही है, उम्मीद है जल्द ही ये कोहरा छटेगा, और ये लकीरें फिर से सभी पढ़ सकेंगे...
हिंदी साहित्य के एक महान कवि ...
लकीरों का क्या...
ये तो रहस्यमयी हैं!
सुन्दर रचना!
आपकी कवितायेँ ही आपकी हाथों की लकीरें है.... सच मानिये... आपकी कवितायेँ हमेशा कुछ नए नए संदेस दे जाती है.....
धुंधली होती लकीरें
एक जलन का
एहसास कराती हैं
और मुझे
तन्हाई में ले जाती हैं
जहाँ मैं खुद ही ,
खुद को नही पढ़ पाती हूँ.
बहुत ही भाव और चिंतन से परिपूर्ण अभिव्यक्ति..लकीरों का क्या, इनको कौन पढ़ पाया है? आपके कर्म ही आपके हाथ में नयी लकीरें बना रहे हैं जिन्हें आप ही नहीं सब पढ़ पा रहे हैं. आभार
nirasha ke saaye se kar ke khud ko dur,
us asha bhari kirno se dekhiye apni htheli ki aur.
hoti dhundli lakire fir ummedo ki syaahi se hogi gehri bharpur.
fir kabhi na fatkegi tanhai aapki aur.
bahut acchi abhivyakti.aapki har rachna dil ko chuti hain.
हमारा तो मानना है कि हाथ की लकीरें अपने कर्मों से बनती हैं ।
अति गूढतम रचना.
रामराम.
वो एक कहावत है न अंग्रेजी की NO NEWS IS THE BEST NEWS ...तो अच्छा ही है ना की किस्मत की लकीरों को नहीं पढ़ा जाता...:)
और लकीरें जैसी भी थी या हो गयी हैं...आपकी कीर्ति को बढ़ा रही हैं...मार्ग प्रशस्त कर रही हैं...तो फिर सोचना कैसा ??
मन की उहा-पोह को दर्शाती सुंदर कविता.
सुन्दर अभिव्यक्ति
छोटी कविता बहुत कुछ कह गयी
इस कविता में लकीरों के ज़रिए ख़ुद को तरीक़े से पहचानने की कोशिश नज़र आती है। अगर यह हो जाए तो ‘उससे’ साक्षात्कार हो जाता है, और इस पथ के लोग हाथों की लकीरों पर क्या निर्भर करेगा?
जब मैं ख़ुद ही ख़ुद को देख नहीं पाती।
सुन्दर तरीके से पिरोयी गई दर्द भरी अभिव्यक्ति।
... behad khoobsoorat rachanaa !!!
यह रचना आपके व्यक्तित्व और आपकी उस सोच से अलग हट कर है जैसी कि आपकी छवि मेरे मन में आपकी रचनाओं को पढ़ कर बनी है ! निराशा का यह स्वर कदाचित आपको सूट नहीं करता ! तथापि रचना बहुत सुन्दर और मर्मस्पर्शी है ! बधाई स्वीकार करें !
बहुत सुन्दर और रुहानी पंक्तियां ! आप ने फ़ोलो नहीं किया मेर ब्लोग ! कृप्या करें !
mere ko samjh nahi aa raha hai kya bolna... bahut udaas si nazm hai ...
मन की घुड़मुड़ाहट शब्दों में व्यक्त करने की सफलता।
मार्मिक चित्रण, दर्द भरी अभिव्यक्ति।
संगीता दी ,
आप अपने हाथोँ को सही से निहारिये तो सही , आपके हाथोँ की रेखाएँ तो बहुत सुन्दर हैँ।
>> आपकी मस्तिष्क रेखा के शुरु मेँ ही एक branch निकल करके गुरू क्षेत्र की तरफ जा रही है तथा brain line का अंत चन्द्र क्षेत्री है ।
>> सूर्य रेखा अति सुन्दर है।
>> ये देखिये venus mount कितनी गुलाबी आभा लिये हुए है। आप बहुत रहस्यमयी हैँ ।
सब कुछ तो स्पष्ट है।
इस सबके वाबजूद आपकी कविता रहस्य बना रही है। बहुत ही खूबसूरत अभिव्यक्ति है । सादर आभार।
बहुत सुन्दर भावपूर्ण व अर्थपूर्ण कबिता वैसे बहुत परिश्रम करती है आप .बहुत-अभूत धन्यवाद.
बहुत सुन्दर भावपूर्ण व अर्थपूर्ण कबिता वैसे बहुत परिश्रम करती है आप .बहुत-अभूत धन्यवाद.
बहुत ही मर्मस्पर्शी रचना....पर जज्बा हो तो लकीरें भी बदल जाती हैं...
अंतिम पंकितयां बेहद अच्छी लगी.
संगीता दी! इस देश में तो हथेली की लकीरें चाकू से बना लेने वाले पैदा हुए हैं!!
अच्छा ही है कि हाथों की लकीर को अब हमारे कोई नहीं पढ़ सकता। ये लकीरें कभी कभी जिंदगी में कई तरह के उतार चढ़ाव का संकेत देती हैं तो कई बार तंग कर देती है। बेहतर है न ही पढ़ी जाएं। अपने को पढ़ने के लिए हाथ की लकीरें क्या पढ़ं बस जरा सा अपने अंदर ही झांक लूं। पर मन तो इतना चंचल है पापी है कि अंदर झांकने से भी डरता है। ऐसे में लकीर से हट कर अपनी खींची हुई लकीर पर चलने की कोशिश क्यों न की जाए।
in haathon mein ab lakiren dikhti kahan hain ... jo hai aapki kalam me hai , jise dekh un lakiron per hum chalne lage hain
oh dadi....kitni acchi nazm hi....udaas si, komal si....beautiful :)
par itni sad kyun....? chalo aapke liye....a bag ful of smiles
:):):):):):):):):):):):):):):):):)
sangita ji kya kahun aapki rachnaye badi marmik hoti hai.sahaj hi dil ke gaharai ko chhu jati hai..........
बहुत ही सुन्दर शब्द भावमय करती रचना ।
जहाँ मैं खुद ही ,
खुद को नही पढ़ पाती हूँ.
खुद को पढना बहुत कठिन है संगीता जी। हम केवल दूसरों को पढने मे ही मग्न रहते हैं। अच्छी कविता के लिये बधाई स्वीकारें।
हाथों की लकीरें.....मुझे तन्हाई में ले जाती हैं जहाँ मैं खुद ही ,खुद को नही पढ़ पाती हूँ.
कविता बहुत सुन्दर और भावपूर्ण है। बधाई।
भविष्य जब अन्धकार में दूप जाता है ... जीवन खोखला होने लगता है ...
गहरी अनुभूति से प्रेरित रचना .
संगीता जी,
बहुत ही सुंदर और भावपूर्ण कविता..
aapka bahut shukriya ki aap aayi aur meri rachna par aapne apni pratikriya vyakt ki.
mera ek aur blog bhi hain kabhi waqt mile to aap yaha bhi aaye.
http:kisseaurkahaniyonkiduniyaa.blogspot.com
बहुत अच्छी रचना.
सुंदर और भावपूर्ण कविता.
लकीरें कर्म से बड़ी नहीं हैं। कर्म और इच्छा शक्ति मजबूत हो तो व्यक्ति क्या नहीं कर सकता....बस अपना कर्म करते रहिए.....सुदंर रचना
एक भावपूर्ण प्रस्तुति....बधाई
.
"Where there is will, there is a way
"
Beautiful creation.
.
भावपूर्ण अभिव्यक्ति ....
संगीता जी,
बहुत खुबसूरत......वाह....कितने कम और सरल शब्दों में आपने कितनी गहरी बात कह दी है.....
किसी शेर की एक लाइन याद आ गयी है...
किस्मत तो उनकी भी होती है जिनके हाथ नहीं होते
लकीरें, चाहे हाथ की हों या कहीं और की...धुंधली हों तो पढ़ना मुश्किल हो ही जाता है... पर अगर उजाला सही हो तो धुंधली लकीरें भी नज़र आ जाती हैं.
बहुत प्यारी पोस्ट है.
मानव मन की वेदना की बेहतरीन अभिव्यक्ति ! शुभकामनायें आपको संगीता जी !
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ...
मैं भी अपनी रेखाओं को देखने, सहलाने लगी हूँ...
photo mein itni pyari muskan aur kavitaon mein itna dard! kash yeh kavitaaen is dard ki dawa ban jaaen! saadar
बहुत सुन्दर लिखा आपने..बधाई.
'पाखी की दुनिया' में भी आपका स्वागत है.
sab kavitayein bahut sunder hain sangeeta ji , aapko padha hai maine 'knol ' par
sab kavitayein bahut sunder hain sangeeta ji , aapko padha hai maine 'knol ' par
मेरी किस्मत
कोई पढ़ नही पाता .
धुंधली होती लकीरें
एक जलन का
एहसास कराती हैं
और मुझे
तन्हाई में ले जाती हैं
जहाँ मैं खुद ही ,
खुद को नही पढ़ पाती हूँ.
गहरे दुखियारे धुंध में सच दुःख बहुत गहराता है ...
बहुत अच्छी रचना लगी
रचना बहुत सुन्दर है ! आभार !
sach hai magar kaha hai lakiren aur lakiron pe saji zindagi?
talash karta rha insan aur ap tab bhatak rha insan...
rachna achchhi lagi...
संगीता जी,
`धुंधली होती लकीरें जलन का अहसास कराती हैं ....तन्हाई में ले जाती हैं जहाँ मैं खुद ही खुद को नहीं पढ़ पाती !`
पढ़ कर ऐसा लगा जैसे अंतर्मन में छुपी वेदना को आपने शब्द दे दिये हैं !
मन को छूते भाव मन को उद्वेलित कर गए !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
स्याह सी होती ये लकीरें ,
वाकई धुंधली ही होती है
वरना किस्मत नही होती,
होती गणित-विज्ञान की तरह
जिसमे लकीरों को परखने का
अहसास कहीं और खो गया होता !
सुन्दर अहसास !
हाथ की लकीरें कर्मों से बदलती रहती हैं। इसलिए,कुंडली विशेषज्ञ हस्तरेखा को ज़्यादा महत्वपूर्ण न मानकर,बस पूरक मानते हैं। मैं कह सकता हूँ कि आपने अपने हाथ में स्वयं नई रेखा खींची है। इसे तो कोई और ही पढ़ सकता है। मृग को स्वयं की कस्तूरी का भान भला कब हुआ है!
सच्चा और गहरा तल्स्मी अहसास है रचना में कौन पढ़ पाया है अपनी रेखा और जो धुंदली हो तो क्या पढ़े कोई
दिल को छू लेने वाली रचना! बहुत ही मार्मिक और भावपूर्ण रचना लिखा है आपने!
हाथ की लकीरें हमारे पढने के लिए नहीं ज्योतिषियों के लिए होती हैं !
फिर भी साधुवाद !
सुन्दर अभिव्यक्ति
धुंधली होती लकीरें
एक जलन का
एहसास कराती हैं
और मुझे
तन्हाई में ले जाती हैं
जहाँ मैं खुद ही ,
खुद को नही पढ़ पाती हूँ.
यथार्थ पर घूमती एक सुंदर भावाभिव्यक्ति।
dhanyawaad ki aapne mere aagrah par mere blog par nazar daali.
aur mane word verification hata diya hai.
thanx.
May God Bless u
nice poem,
lovely blog.
हाथों की लकीरें धुंदली हुईं तो क्या हुआ
आप का कामयाब अक्स आपकी तहरीरों
में खुद चमक रहा है
काव्य कृति अच्छी बन पडी है
आपके द्वारा रचा गया पात्र
पाठकों से बातें कर पाने में कामयाब रहा .
आपकी इस रचना को पढ़ कर
अपनी एक गजल का मतला
याद आ गया।
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सदा इल्म की सरपरस्ती में चलिए।
हथेली की अपनी इबारत बदलिए॥
सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी
खुद को पढ़ पाना शायद सबसे दुश्कर है. मन की हजार परतें हैं एक को पढो तो ....
बेहतरीन भाव और सूक्ष्मता लिये हुए रचना
सुन्दर रचना ..कोमल भाव से उद्वेलित करती हुई ..
master piece
excellent composition
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